सृष्टि के प्रत्येक कल्प में उज्जयिनी का अस्तित्व रहा है ,युग-युगीन उज्जयिनी।

विशेष लेख ।

युग-युगीन उज्जयिनी।

उज्जैन। बसंत ऋतु का चैत्र मास परम पुरुष से प्रकृति के मिलन का मास माना गया है। इनके मिलन से प्रकृति में उष्णता एवं जीव-जंतु व पेड़-पौधों में नवजीवन, नव चेतना व नव ऊर्जा का संचार नजर आने लगता है। वातावरण में उल्लास व उत्साह का माहौल हमें आल्हादित करता है। ऐसा लगता है समूची सृष्टि चैत्र का मंगलगान गा रही है। ऐसी मान्यता है कि इसी चैत्र मास की शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा के दिन ईश्वर ने सृष्टि की रचना की थी। इसके बाद से सृष्टि निरन्तर प्रकाशमान व गतिमान है।

पुण्य सलिला शिप्रा के पावन तट पर स्थित सनातन नगरी उज्जयिनी अर्थात उज्जैन के लिए चैत्र शुक्ल प्रतिपदा की इस तिथि का समूचे भारतीय जनजीवन से अधिक विशेष महत्व है। चूंकि सृष्टि के प्रत्येक काल खंड में, सनातन संस्कृति के प्रत्येक पक्ष में, धर्म के प्रत्येक युग में, वेद-वेदांग, श्रुति, पुराणों सहित अन्य सभी धर्मग्रंथों में, प्राचीनतम भूगोल, राजनीति, इतिहास, खगोल, साहित्य, संगीत व ज्योतिष के हर संदर्भ में उज्जैन का उल्लेख मिलता है, अतः ऐसा कहने या मानने में कोई अतिश्योक्ति नही होगी कि उज्जयिनी का उद्भव सृष्टि के निर्माण की इसी तिथि से जुड़ा है। पुरातन धार्मिक, पौराणिक व सांस्कृतिक विरासत से सम्पन्न व समृध्द उज्जयिनी संसार की अनादि नगरी है जो समय-समय पर भिन्न-भिन्न नामों से प्रख्यात रही है।

सृष्टि के प्रत्येक कल्प में उज्जयिनी का अस्तित्व रहा है। स्कंद पुराण में उज्जयिनी के 6 कल्पों के 6 नाम दिए गए हैं जो कल्पवार क्रमशः कनकश्रृंगा, कुशस्थली, अवंतिका, अमरावती, चूड़ामणि एवं पद्मावती है। इसीलिए उज्जैन को प्रतिकल्पा भी कहा गया है। अन्य ग्रंथों में उज्जयिनी को भोगवती, हिरण्यवती, विशाला आदि नामों से भी संबोधित किया गया है। पुराणों में इसकी गणना भारत की सात पवित्र व मोक्षदायिनी नगरियों में की गई है-

अयोध्या, मथुरा, माया, काशी, कांची, अवंतिका।

पूरी, द्वारावती ज्ञेया सपतेतः मोक्षदायिका।।

पुराणों में इसे मणिपुर चक्र अर्थात नाभिदेश बताया गया है और नाभिदेश का अधिष्ठाता देवता महाकाल को बताया गया है। वराह पुराण के अनुसार-

आज्ञाचक्र स्मृताकाशी या बाला श्रुतिमूर्धनि

स्वाधिष्ठानम स्मृताकांची मणिपुरमवन्तिका

नाभिदेशे महाकाल स्तन्नामना तत्र वै हरः।।

ज्योतिष के प्रसिद्ध ग्रंथों- सूर्य सिद्धांत, सिद्धांत शिरोमणि एवं पंचसिद्धांतिका में भी उज्जयिनी की स्थिति पृथ्वी के नाभिस्थल पर बतायी गई है। भूमध्य शून्य रेखांश पर स्थिति होने की ज्योतिष मान्यता के कारण भी उज्जयिनी को महत्व प्राप्त है। संभवतः इसी महत्ता के कारण महाकाल यहाँ कालगणना के प्रतीक रूप में अधिष्ठित हैं।

भगवान शिव स्वयंभू ज्योतिर्लिंग स्वरूप में विराजमान हैं लेकिन उक्त महत्व के कारण भूतभावन भगवान महाकाल ज्योतिर्लिंगों की द्वादश संख्यक सत्ता से ऊपर उठकर मृत्युलोक के स्वामी की सार्वभौम सत्ता के सर्वाधिकारी रूप में स्वीकृत हो गए हैं। लिंग पुराण में शिवलिंग की उत्पत्ति पर प्रकाश डालते हुए महाकाल को समस्त भूमण्डल के स्वामी के रूप में नमन किया गया है-

आकाशे तारकंलिंग, पाताले हाटकेश्वरम।

मृत्युलोके महाकालं लिंगत्रय नमोस्तुते।।

महाकाल को “कालचक्र प्रवर्तकों महाकाल प्रतापनः” स्तुति के साथ भी कालगणना के प्रवर्तक के रूप में स्वीकार किया गया है।

स्कंद पुराण के अवंति खंड के अनुसार भगवान शिव अवंतिका में महाकाल वन में अधिष्ठित हैं। महाकाल वन एक योजन पर्यंत विस्तृत अत्यंत पवित्र स्थान माना गया है। महाकाल वन में श्मशान (भूतों का प्रिय स्थान ), उसर ( जहाँ मृत्यु होने पर पुनर्जन्म नही होता ), क्षेत्र ( जहाँ पापों का क्षय होता है ), पीठ ( जहाँ मातृकाओं का निवास होता है ) और वन ( जहाँ नित्य भगवान शंकर की स्थिति होती है, वह गुह्यवन कहलाता है ) ये पाँच तत्व समाहित माने गए हैं। इन पाँचों की स्थिति उज्जयिनी के महाकाल वन के अतिरिक्त अन्यत्र एक साथ उपलब्ध नही होती, अतः उज्जैन व महाकाल वन को इस कारण अत्यंत पवित्र व महत्वपूर्ण माना गया है।

श्मशानमुसरं क्षेत्र पीठं तु वनमेष च।

पंचेकत्र ये लभ्यंत्र महाकाल पुरादृते।।

विश्व में काल गणना के लिए कर्क रेखा को केंद्र माना गया है। खगोलीय गणना के अनुसार कर्क रेखा उज्जैन से होकर गुजरती है। खगोल विज्ञान में उज्जयिनी के अक्षांश और सूर्य की परम क्रांति दोनों ही 24 अंश माने जाते हैं। सूर्य की ठीक मस्तक पर स्थिति उज्जैन के अलावा विश्व के किसी अन्य अक्षांश पर प्राप्त नही होती। उज्जैन को काल गणना का केंद्र इसी भोगौलिक स्थिति के कारण माना गया है।

उज्जयिनी की ज्योतिष की दृष्टि से विशिष्ट पहचान आज भी बनी हुई है। ज्योतिष के अध्येता रहे राजा सवाई जयसिंह द्वारा 18 वीं सदी में यहाँ बनाई गई वेधशाला आज भी सक्रिय रूप से कार्यरत है। इस वेधशाला से आज भी वेध लिए जा सकते हैं। उज्जयिनी से आज भी कई पंचांगों का प्रकाशन हो रहा है, जिनका ज्योतिष गणना हेतु विशिष्ट महत्व माना गया है।

उज्जयिनी के परम प्रतापी राजा विक्रमादित्य को लेकर जो आख्यायिका है, उसके अनुसार राजा विक्रमादित्य ने ईस्वी पूर्व 57 में विदेशी आक्रांताओं शकों पर विजय प्राप्त की और उसके उपरांत कालगणना के नये संवत्सर की शुरुआत की, जो विक्रम संवत के नाम से वर्तमान में प्रचलित है। विक्रम संवत चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से ही आरंभ होता है।

युग-युगीन उज्जयिनी पुण्य सलिला शिप्रा के पावन जल से आप्लावित रही है। पुराणों के अनुसार शिप्रा की उत्पत्ति भगवान विष्णु की तर्जनी उंगली से हुई है। उज्जैन के अस्तित्व को परिभाषित करती उत्तरवाहीनी शिप्रा आज भी सनातन संस्कृति के अनुगामियों के लिए गहरी आस्था का केंद्र बनी हुई है। पौराणिक ग्रंथों में शिप्रा को पवित्र गंगा, यमुना, सरस्वती के समान बल्कि कहीं अधिक पवित्र व पुण्यदायी माना गया है। पुराणों में इसे अमृतसंभवा व जवरघ्नी भी कहा गया है।

पुण्य सलिला शिप्रा के प्रति श्रद्धालुओं की आस्था का सबसे बड़ा उदाहरण यहाँ आयोजित होने वाला सिंहस्थ महापर्व है। प्रति 12 वर्ष के अंतराल में सिंहस्थ आयोजन की परंपरा पौराणिक अमृत मंथन की कथा से जुड़ी है। सिंहस्थ महापर्व विशिष्ट ग्रह योगों में ही आयोजित होता है।

सनातन संस्कृति के अधिकांश ऋषि-मुनियों, भारतीय सांस्कृतिक मनीषा के अनेक विद्वानों, चिंतकों, कवि-साहित्यकारों व इतिहासवेत्ताओं नें उज्जयिनी का प्रशस्तिगान किया है। यह विभिन्न धर्मों की समन्वय नगरी है। सनातन धर्म के सभी पंथों-मतों के अतिरिक्त अन्य धर्मों के अनुयायी यहाँ निवास करते हैं। जैन, बौद्ध, सिख, मुस्लिम, बोहरा, ईसाई आदि सभी धर्मों के तीर्थ स्थल यहाँ विद्यमान हैं। दरअसल उज्जयिनी तीर्थों, पर्वो व उत्सवों की नगरी है। उज्जयिनी की धार्मिक-सांस्कृतिक परम्पराओं को सूचीबद्ध करना आकाश में तारे गिनने के समान है। उज्जैन के हर गली, मोहल्ले में धार्मिक आस्था के केंद्र है जिनका अपना धार्मिक महत्व व परम्पराएँ हैं। यहाँ तक कि यहाँ के सरोवरों, तालाबों, कुओं व बावड़ियों को लेकर भी धार्मिक आस्था व उनसे जुड़े कथा-प्रसंग, पर्व-त्योहार व परम्पराएँ हैं। सात वार व नौ त्योहार की कहावत यहाँ पूरी तरह लागू होती है। उज्जयिनी प्रमुख रूप से शैव नगरी मानी गई है। अतः कहा जाता है कि यहाँ के कंकर-कंकर में शंकर विराजमान हैं।

उज्जयिनी का शाब्दिक अर्थ विजयिनी है, अर्थात उत्कर्ष के साथ विजय करने वाली नगरी। दूसरे शब्दों में कहें तो विजय दिलाने वाली नगरी का नाम उज्जयिनी है। विजय के उपरांत उत्कर्ष तक पहुँचाने वाली नगरी का नाम उज्जयिनी है। यह कहना गलत नही होगा कि उज्जयिनी सिर्फ एक नगरी का नाम नही, संस्कृति की अविरल बहती धारा का नाम है।

-लेखक एवं पत्रकार
योगेंद्र माथुर
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